ऊपर से नीचे तक करीने से सजे थे आप तो।
फ़िर बेलबूटेदार कपड़ों से सजाया क्यों बदन।
जब हो चुकी थी जिस्म पर कारीगरी, ओ आफताब!
फ़िर क्यों ज़री के काम को देने आमादा हो ख़िताब।
जब हजारों बार बिंधे अरमान।
तेरी सजावट का बना सामान।
एक से बढ़ एक आगे होड़ करती है ज़री।
पहले खुदा फ़िर बाद उसके आदमी कारीगरी।
किस तरफ़ से की शुरू नक्काश ने कारीगरी।
जर्रे-जर्रे पे बनाया फूल भी मलयागिरी।
देख तुमको लोचनों ने है ज़री का काम सीखा।
और तब से ही तुम्हारे अक्स के नक्काश हैं ये।
[गृहशोभा पत्रिका के लिए जबरन लिखे गए उर्दू-हिंदी भाषा के शेर]
5 टिप्पणियां:
jandar,shandar,damdar.narayan narayan
उम्दा शायरी,
वाकई बहुत दमदार रचना।
ब्लॉगजगत में स्वागत है आपका!!!
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
स्वागत है.
Shukriyaa Mukesh Ji
Dhanyawaad Vandanaa ji
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